मंडल बनाम कमंडल और बिहार की राजनीति

अमित कुमार मंडल
राजनीति विज्ञान विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली


बीते बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा सर्वदलीय बैठक में राज्य स्तर पर जाति जनगणना कराने के फैसले ने सबको चौंका दिया है। हालांकि जाति जनगणना की मांग कोई नई मांग नहीं है, देश में एक लंबे अरसे से जाति जनगणना कराने को लेकर राजनीति होती रही है। खुद बिहार विधानसभा भी सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेज चुकी है। साथ ही जाति जनगणना कराने को लेकर बिहार के लगभग सभी प्रमुख दल के नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल भी प्रधानमंत्री से मिल चुका है।

विदित हो कि जाति जनगणना ब्रिटिश भारत में 19वी शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू हुई और अंतिम गणना 1931 में बताया जाता है। हालांकि ब्रिटिश काल में ही 1941 में जनगणना का कार्य नहीं हो पाया क्योंकि उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और आजादी के बाद शासक वर्ग ने ‘जाति जनगणना से समाज टूट जाएगा‘ जैसे बेबुनियादी तर्क के सहारे इस बड़े राष्ट्र निर्माण के प्रोजेक्ट को नकारता रहा जबकि लगातार काका कालेकर समिति हो , मंडल आयोग हो, तमाम राज्यों में गठित पिछड़े वर्ग आयोग हो , साथ ही समय-समय पर न्यायालय भी जाति जनगणना की रिपोर्ट की जरूरत को बताते रहे हैं।

वैसे यह भी अर्धसत्य है कि आजाद भारत में कोई जातिगत जनगणना ही नहीं हुई है; भारत में प्रत्येक 10 वर्ष पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनगणना निरंतर रूप से हो रही है। हां इसके अलावा अन्य जातियों की जनगणना नहीं हुई है। राजनीतिक वैज्ञानिक योगेंद्र यादव ओबीसी और ईडब्ल्यूएस वर्ग की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि “भारत दुनिया का एक मात्र देश है जो अपने यहां के लोगों को आरक्षण देता है और उनकी गिनती नहीं करता”

इसके बाद सभी जातियों की सामाजिक आर्थिक जनगणना कराने को लेकर 2010 में संसद में सर्वसम्मति से तय हो चुका है लेकिन कांग्रेस और भाजपा सरकारों की नियत की कमी ने उसका भी पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है और अंततः तमाम त्रुटियां आदि बताकर उसके रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

जाति जनगणना कराने को लेकर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी लगातार सक्रिय रही जिसे ओबीसी और सामाजिक न्याय की पॉलिटिक्स कर रहे सभी दलों का समय-समय पर समर्थन प्राप्त होता रहा है। बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री एवं नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी प्रसाद बीते दिनों जाति जनगणना ना कराए जाने पर बिहार से दिल्ली तक पदयात्रा करने की भी घोषणा कर चुके हैं हालांकि 72 घंटे से पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री सभी पार्टियों की बैठक बुलाकर बुधवार को इसकी घोषणा कर चुके हैं। इसमें दिलचस्प बात यह है कि पूरे देश में जाति जनगणना ना कराने का फैसला ले चुकी भारतीय जनता पार्टी का राज्य नेतृत्व भी इस फैसले का हिस्सा है।

ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि इस फैसले के पीछे भारतीय जनता पार्टी की क्या मजबूरी हो सकती है। नीतीश कुमार के इस फैसले का देश में पिछड़ों और सामाजिक न्याय की राजनीति कर रहे नेताओं ने सराहना की है। नीतीश कुमार ने अपने प्रेसवार्ता में इस बात पर भी जोर दिया है कि अगर सभी राज्य अपने अपने स्तर पर जाति जनगणना करवा दे, तो भी तमाम नीतियां बनाने में इसकी मदद ली जा सकती है ।

मुख्य रूप से इस लेख में यही समझने का प्रयास किया गया है कि क्या मंडलवादी ताकते जिसका केंद्र बिहार रहा है, एक बार फिर से कमंडल को रोकने का प्रयास कर रहीं हैं। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है, 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कमंडलवादी शक्तियों की प्रचंड जीत के बाद बिहार में ऐसा किया जा चुका है।

बौद्धिक लोगो का मानना है कि नीतीश कुमार की गलतियों ने ही बीजेपी को और फैलने का मौका दे दिया, नहीं तो महागठबंधन का फार्मूला 2017 में उत्तर प्रदेश और 2019 में देश से भाजपा का सफाया करने में कारगर था। लेकिन पिछले दिनों लगातार नितीश – तेजस्वी की निकटता ने सब कुछ भुलाकर फिर से 2015 को राष्ट्रीय स्तर पर आजमाने की प्रयास दिखाती है। नहीं तो नीतीश कुमार इतने कमजोर सरकार के मुख्यमंत्री, इस तरह भाजपा के आंख में आंख डालकर दो-दो हाथ नहीं कर रहे होते। वह ऐसा तभी कर पा रहे हैं क्योंकि इसके पीछे को ठोस रणनीति जरूर चल रहा है जैसे अगर जाति जनगणना के मुद्दे पर भाजपा सरकार गिराती है तो आरजेडी के समर्थन से सरकार को स्थायित्व प्रदान करने आदि की रणनीति हो सकती है।

बिहार में जाति जनगणना कराकर भारतीय जनता पार्टी को पिछड़ों के हितों के मुद्दे पर बेनकाब किया जा सकता है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर जनमत खड़ा करके नीतीश कुमार को 2024 पीएम फेस घोषित किया जा सकता है और तेजस्वी प्रसाद को चुनाव पूर्व या बाद बिहार के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी दी जा सकती है ।

हालांकि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी है लेकिन इस फैसले ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दिया है क्योंकि यह मांग लगातार उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों में भी बड़े स्तर पर जोर पकड़ सकता है, जिसका काट भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है। वह इस मुद्दे पर लौटेगी तो उसका हारना तय है क्योंकि छद्म हिंदुत्व के नाम पर खड़े मकान की एक एक ईट बिखर सकते हैं, जिसके फलस्वरूप पिछड़ी अति पिछड़ी जातियो के बीच शक्ति संरचना और संसाधनों के पुनर्वितरण को लेकर व्यापक मांग बलवंत हो सकती हैं। हालांकि अभी आगे क्या कुछ होना है इसका आकलन कर पाना बहुत मुश्किल है लेकिन इस फैसले ने इतना तो जाहिर कर ही दिया है कि कमंडल से निर्णायक संघर्ष के लिए बिहार की राजनीति अवश्यंभावी रूप से अंगड़ाई ले रही है।

 

ये लेखक के निजी विचार हैं।

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