जितिन प्रसाद को कैबिनेट मंत्री बनाने से क्या लुभा पाएगी योगी सरकार

स्टार एक्सप्रेस डिजिटल  : भारत के संविधान निर्माता कहलाने वाले डॉ.भीमराव आंबेडकर ने वर्षों पहले अपनी किताब ‘फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म’ में जातिवाद का विरोध करते हुए लिखा है कि, जाति व्यवस्था एक कई मंजिला इमारत जैसी होती है जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है।  देश की आज़ादी के इन 75 सालों में तमाम राजनीतिक दलों के लिए ये जातियां ही सत्ता तक पहुंचने की सबसे महत्वपूर्ण सीढ़ी बन चुकी है। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या फिर किसी प्रदेश की विधानसभा का,अगर जातीय संतुलन बैठाने में जरा भी गड़बड़ हुई,तो समझ लीजिये कि दोबारा सता की चौखट तक पहुंचना बेहद मुश्किल है।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी कैबिनेट का रविवार को जो विस्तार किया है,उसे राजनीति के लिहाज से गलत इसलिये नहीं ठहराया जा सकता कि अगर बीजेपी की बजाय कोई और पार्टी सत्ता में होती,तो चुनाव से पहले ऐसा करना उसकी भी यही मजबूरी होती। लेकिन यूपी के सियासी गलियारों में एक बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि कुछ महीने पहले कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामने वाले जितिन प्रसाद को कैबिनेट मंत्री बनाने भर से क्या समूचा ब्राह्मण वर्ग इतना खुश हो जाएगा कि वो अपने वोटों से बीजेपी की झोली भरने में कोई कंजूसी नहीं बरतेगा? वैसे भी यूपी की सियासत में जितिन अभी तक ब्राह्मणों के उतने चहेते नेता नहीं बन पाए हैं,जो कद एक जमाने में उनके पिता दिवंगत जितेंद्र प्रसाद का हुआ करता था। इस हक़ीक़त को कांग्रेस के अलावा बीजेपी के नेता भी नहीं झुठलाते हैं और वे मानते हैं कि शाहजहांपुर से वे अब तक जितने भी चुनाव जीते है,उसका सारा श्रेय उनके पिता की लोकप्रियता को ही जाता है।

सत्ता में बैठी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी पुख्ता तौर पर ये दावा नहीं कर सकता कि महज़ इतना कर देने भर से वो ब्राह्मणों को पूरी तरह से अपने साथ जोड़ लेगा लेकिन वो इस सच्चाई को मानने से इनकार भी नहीं कर सकता कि पिछले साढ़े चार साल में कुछ तो ऐसा हुआ ही है कि उसका सबसे मजबूत व मुखर समर्थक माना जाने वाला समुदाय उससे नाराज़ हुआ है।

उसका गुस्सा सिर्फ मंत्रिमंडल में उचित महत्व न मिलने से ही नहीं बाहर आया होगा,बल्कि इसके और भी कई कारण रहे होंगे। इसका एक बेहद अहम और बीजेपी के लिए थोड़ी चिंता का कारण ये भी है कि इस दौरान राज्य में एससी-एसटी कानून के तहत जिनके खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए हैं, उनमें ब्राह्मण समुदाय के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है। इसे भी संयोग कह सकते हैं कि योगीराज में जितने पुलिस एनकाउंटर हुए हैं,उनमें भी ब्राह्मण वर्ग के कथित अपराधियों की संख्या ज्यादा रही है। लिहाज़ा ब्राह्मणों को ये महसूस होने लगा कि उनके साथ अकारण ही बदला लिया जा रहा है, सो उनके इस दर्द में भागीदार बनकर उसका सियासी फायदा उठाने में बीएसपी सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जरा भी देर नहीं लगाई।

हालांकि कहना मुश्किल है कि वे इसमें किस हद तक कामयाब हुए या आगे हो पाएंगे लेकिन ये तो आईने की तरह साफ है कि वे बीजेपी के सबसे मजबूत वोट बैंक माने जाने वाले समुदाय में काफी हद तक अपनी सेंध लगा चुके हैं। यूपी में ब्राह्मणों की आबादी लगभग 13 फीसदी है,जो दलितों व पिछड़ी जातियों के मुकाबले काफी कम है। लेकिन यूपी की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले लोग मानते हैं कि यही वो वर्ग है,जो समाज में पहले अपनी राय बनाता है और फिर उसे आगे फैलाता है। यानी राजनीति की हवा बदलने में बहुत हद तक प्रभावशाली समझा जाता है।

दलितों की सबसे बड़ी हमदर्द समझी जाने वाली मायावती को जब इस छुपी हुई ताकत का अहसास हुआ,तभी उन्होंने 2007 में ब्राह्मण -दलित का गठजोड़ करके बीएसपी के चुनाव चिन्ह को लेकर नारा दिया था-ये हाथी नहीं,गणेश है- ब्रह्मा,विष्णु ,महेश है। इसी गठजोड़ के बलबूते तब वे सत्ता की कुर्सी तक पहुंची थी और अब फिर वे उसी प्रयोग को दोहराने में जुटी हुई हैं। बेशक इस बार सत्ता पाना, उतना आसान नहीं लेकिन ब्राह्मणों का कुछ फीसदी वोट भी उन्हें या फिर सपा को मिलता है,तो वह सीधे तौर पर बीजेपी को नुकसान देगा।

2017 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी को ब्राह्मणों के तकरीबन 80 फीसदी वोट मिले थे और कुल 58 उम्मीदवार जीतकर विधायक बने। लिहाज़ा, बीजेपी भी इस हक़ीक़त को मानकर ही चल रही है कि इस बार उसका जानाधर यहां कम होता दिख रहा है। शायद इसीलिए योगी कैबिनेट के विस्तार में दलितों के साथ ही करीब 40 फीसदी आबादी वाले ओबीसी वर्ग का खास ख्याल रखा गया है। पिछड़े वर्ग में भी गैर यादव जातियों-मसलन बिंद,मल्लाह,कुर्मी व प्रजापति समुदाय को प्रतिनिधित्व देकर बीजेपी ने वहां अपनी जड़ें मजबूत करने का सियासी दांव खेला है। क्योंकि पिछड़ों की रहनुमा बनने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार में अक्सर ऐसी जातियों को हाशिये पर ही रखा जाता रहा है।

उत्तरप्रदेश देश का सबसे बड़ा और इकलौता ऐसा प्रदेश है,जिसकी कमान ऐसे योगी आदित्यनाथ के हाथ में है,जो खुद एक संन्यासी है। वे भारत में उस नाथ परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसकी शुरुआत 13 वीं सदी में अवतरित हुए गुरु गोरखनाथ ने की थी और योगी आज भी उस गद्दी को संभाले हुए हैं। अक्सर सियासी दुनिया मे आज भी ये सवाल पूछा जाता है कि एक संन्यासी को भला राजनीति का सत्ता से इतना मोह क्यों होना चाहिए। इतिहास बताता है कि विभिन्न अलौकिक शक्तियों के स्वामी गुरु गोरखनाथ के सबसे पहले शिष्य राजा भर्तहरि थे,जो उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। वे गोरखनाथ से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने अपना सारा राजपाट त्याग कर वैराग्य ले लिया। वर्षों की समाधि-तपस्या के बाद उन्होंने सांसारिक दुनिया का अर्थ अपने श्लोकों के जरिये समझाया। उनमें से ही एक है-नीति शतकम।

इसके 47 वें श्लोक में वे कहते हैं-
सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरुपा ॥ ४७॥

इसका भावार्थ है-
कहीं सत्य और कहीं मिथ्या, कहीं कटुभाषिणी और कहीं प्रियभाषिणी, कहीं हिंसा और कहीं दयालुता, कहीं लोभ और कहीं दान, कहीं अपव्यय करने वाली और कहीं धन संचय करने वाली राजनीति भी वेश्या की भाँति अनेक प्रकार के रूप धारण कर लेती है। उम्मीद करनी चाहिए कि योगी आदित्यनाथ ने इस श्लोक को पढ़ा होगा और आने वाले समय में भी वे इस तरह की राजनीति से स्वयं को कोसों दूर ही रखेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Back to top button