इन कारणों से स्कूली विद्यार्थियों में बढती है हिंसक प्रवृत्ति

दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, चेन्नई समेत राष्ट्र के कई हिस्सों में स्कूलों के अंदर कुछ विद्यार्थियों द्वारा किसी विद्यार्थी या शिक्षक की मर्डर किए जाने की घटनाओं ने ये इशारा दिए हैं कि स्कूली विद्यार्थियों में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है ।

अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के इस राष्ट्र में हिंसा को बढ़ावा देकर जैसा माहौल बनाया जा रहा है, उसकी छाप बच्चों के कोमल मन पर पड़ना स्वाभाविक है व यह गंभीर चिंता का विषय है। मनोवैज्ञानिकों व शिक्षाविदों की मानें तो स्कूली विद्यार्थियों के मन में भरी कुंठा, ईष्र्या व असहिष्णुता (बर्दाश्त करने की क्षमता न होना) के कारण स्कूली बच्चे इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं।

 

यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाज के लिए खतरा बनती जा रही है
यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाज के लिए खतरा बनती जा रही है। हाल ही में दिल्ली के ज्योति नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में कुछ विद्यार्थियों ने 10वीं के विद्यार्थी की पीट-पीटकर मर्डर कर दी थी । दिल्ली से सटे गुरुग्राम के एक बड़े व्यक्तिगत स्कूल में हुई बहुचर्चित प्रद्युम्न हत्याकांड समाज को झकझोर कर रख देने वाली घटना है।

उधर, गुजरात के वड़ोदरा में एक विद्यार्थी की चाकू से 31 बार वार कर मर्डर कर दी गई थी । दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के सेंट मैरी एग्लो भारतीय स्कूल में 12वीं कक्षा के एक विद्यार्थी ने प्रिंसिपल की मर्डर कर दी । देशभर में इस तरह की कई घटनाएं हैं, जो स्कूली विद्यार्थियों में पनप रही हिंसा की प्रवृत्ति की ओर संकेत करती हैं।

ये घटनाएं समाज के लिए खतरे की घंटी हैं
ये घटनाएं समाज के लिए खतरे की घंटी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ। नवीन कुमार ने स्कूली विद्यार्थियों की प्रवृत्ति में आए परिवर्तन के बारे में आईएएनएस से कहा, “स्कूली बच्चों द्वारा हिंसा कुंठा व दबाव का नतीजा है।

स्कूली बच्चों की प्रवृत्ति में आए परिवर्तन के पीछे तीन कारण हैं
जिसमें पहला है कि परिवारों का बच्चों से संवाद कम हो गया है, माता पिता बच्चों को अधिक समय नहीं दे पा रहे हैं जिस कारण बच्चों में नैतिक मूल्य का निर्माण नहीं हो पा रहा है । इससे बच्चों में योगदान और सद्भाव वाली भावना घट रही है।

दूसरा कारण है एजुकेशन प्रणाली। जब तक स्कूली बच्चों की शिक्षण प्रणाली सही नहीं होगी, तब तक वे मानसिक दबाव व तनाव में रहेंगे ही । वे कब क्या कर बैठेंगे, कोई नहीं जानता.” उन्होंने कहा, “तीसरी बात कि स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बातें सैद्धांतिक होती हैं, जो बच्चों की रुचि को संतुष्ट नहीं कर पाती हैं । बच्चों को स्कूलों में नियंत्रित वातारण में एक जगह पर बैठा दिया जाता है, जिस कारण उन्हें शिक्षकों से वन टू वन वार्ता करने में दिक्कत होती है । महानगरीय संस्कृति में तो व भी बुरा हाल है ।

बच्चे के घर पर आने के बाद उसके मनोभाव और समस्याओं को जानने वाला कोई नहीं रहता। ऐसे में बच्चों को जो अच्छा लगता है, वे करते हैं.” क्या इसके लिए समाज भी जिम्मेदार है? इस सवाल पर डॉ। कुमार ने कहा, “अगर किसी बच्चे ने सफलता पा ली तो अच्छा है, लेकिन अगर वह पास नहीं हुआ तो परिवार से लेकर समाज तक में उसे कोसा जाता है । ऐसे में उसमें कुंठा बढ़ेगी ही । बचपन आनंद काल होता है, जहां उसके गुणों व आत्मविश्वास का निर्माण होता है, लेकिन स्कूलों में 70 से 80 प्रतिशत बच्चों को पता ही नहीं होता कि उसे आगे करना क्या है ।

वर्तमान में समाज भी आत्मकेंद्रित होने की ओर बढ़ रहा है
दरअसल, वर्तमान में समाज भी आत्मकेंद्रित होने की ओर बढ़ रहा है.”उन्होंने कहा, “समाज में सफलता का पैमाना आईएएस, आईपीएस व बड़ा व्यापारी मान लिया गया है, लेकिन अच्छा मनुष्य बनने की भावना में कमी आई है । समाज में आम व विशेष की खाई बढ़ी है । समाज में सफलता की परिभाषा हो गई है ‘शक्तिशाली’, जो ताकतवर है वह अपना प्रभुत्व कायम कर लेगा । समाज आपको तभी मानेगा जब आप आईपीएस, बड़े व्यापारी या राजनेता होंगे । यह बहुत ही खतरनाक चलन बन गया है । राष्ट्र में कोई आदमी अपने बेटे को किसान नहीं बनाता, इसी तरह से मौलिक चीजों को नजरअंदाज किया जा रहा है.”

इन घटनाओं पर स्कूलों द्वारा लगाम लगाने पर जोर देते हुए डॉ। नवीन ने कहा, “स्कूल बच्चों का ध्यान रचनात्मक गतिविधियों में लगाएं, सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान न दें, सिर्फ पाठ्यक्रम पढ़ाने से बच्चों का भला नहीं होगा । उन्हें तैराकी सिखाएं, कहीं घूमने ले जाएं या खेल की गतिविधियों में शामिल होने को कहें ।

साथ ही बच्चों में एक-दूसरे से संवाद की तकनीक पैदा करना भी महत्वपूर्ण है, ताकि उनमें संवेदना जागे । उन्हें बाहर ले जाकर उन गरीब बच्चों से मिलाएं, जिन्हें ये सब सुविधाएं नहीं मिल रही हैं । इन तरीकों से बच्चों की प्रवृत्ति में परिवर्तन आएगा.” क्या अभिभावकों की तरफ से बच्चों के परवरिश में कोताही हो रही है? इस सवाल पर उन्होंने कहा, “अभिभावकों को बच्चों से लगातार संवाद करना चाहिए ।

अभिभावकों को वार्ता करके समझना चाहिए कि बच्चा क्या चाहता है
उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ना चाहिए । अभिभावकों को वार्ता करके समझना चाहिए कि बच्चा क्या चाहता है व यही वह वक्त होता है, जब उसमें कुंठा का भाव उत्पन्न होता है । अगर हम उसे सीधे मना करेंगे तो वह हताश होगा, लेकिन जब हम उसे प्यार से समझाएंगे तो उसमें जारूकता आएगी, जो बहुत ज्यादा जरूरी है। ” पिछले वर्ष हरियाणा के एक व्यक्तिगत स्कूल में सात वर्षीय प्रद्युम्न की मर्डर ने राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया था ।

प्रद्युम्न की मां सुषमा ठाकुर आज भी रोते हुए लगातार एक ही सवाल पूछती हैं, “मेरे बच्चे का क्या अपराध था? मैंने अपने बच्चे को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था, जहां उसकी गला रेतकर मर्डर कर दी गई.” वह रोते हुए कहती हैं, “मेरी तो संसार ही उजड़ गई। ” स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के बारे में शिक्षाविद् व समाजसेवी डॉ। बीरबल झा कहते हैं, “यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है ।

कहीं न कहीं एजुकेशन व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है, बच्चों पर हमने एजुकेशन का इतना अधिक दबाव तो डाल दिया, लेकिन उनमें नैतिक मूल्यों का विकास नहीं किया । इन्हीं मूल्यों के कारण बच्चे बच्चे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ नहीं पाते.” उन्होंने कहा, “बच्चे इस राष्ट्र का भविष्य हैं व अगर बच्चे हिसात्मक हो जाते हैं तो हमारा भविष्य अधर में लटक जाएगा । इसके लिए सभी समाजसेवियों, शिक्षाविदों व चिंतकों को आगे आना चाहिए, ताकि स्कूली बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास को बढ़ाया जाए, न कि हिंसक प्रवत्ति को.”

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