कर्नाटक BJP 38 साल पुरानी परंपरा नहीं तोड़ पाई, जानिये क्या है वजह

Karnataka चुनाव के रुझानों के मुताबिक, BJP 80 से कम सीटों पर थमती दिख रही है, वहीं कांग्रेस एक बार फिर सत्ता का स्वाद चखने की ओर बढ़ा है, वह बहुमत का आंकड़ा पार कर चुकी है

स्टार एक्सप्रेस/संवाददाता

डेस्क: कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी (BJP) 38 साल पुरानी परंपरा तोड़ने से चूक गई। राज्य में 1985 के बाद से कोई भी पार्टी दोबारा सत्ता में वापसी नहीं की है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के रुझानों के मुताबिक, बीजेपी 80 से कम सीटों पर थमती दिख रही है। वहीं कांग्रेस एक बार फिर सत्ता का स्वाद चखने की ओर अग्रसर है। वह बहुमत का आंकड़ा पार कर चुकी है। राज्य में सरकार बनाने के लिए 113 सीटों की दरकार होती है जो कांग्रेस अकेले अपने दम पर हासिल कर रही है।

अगर ये रुझान नतीजों में बदलते हैं तो ये 2024 लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के लिए ये बड़ा झटका हो सकता है। क्योंकि कर्नाटक ही एक दक्षिण का एक ऐसा राज्य है जहां बीजेपी की सरकार है। ऐसे में ये जानना भी जरूरी है कि राज्य में पार्टी के खराब प्रदर्शन के क्या कारण हो सकते हैं।

RSS के हिंदुत्व द्वारा परिभाषित जीवन का तरीका अभी भी कर्नाटक के लोगों के लिए कुछ अलग है। बीजेपी के खिलाफ जो काम करता है वह यह है कि बेंगलुरु और राज्य के अन्य हिस्सों में रहने वाले उत्तर भारतीय बड़े पैमाने पर युवा हैं जो हिंदुत्व संगठनों द्वारा की जाने वाली नैतिक पुलिसिंग से असहज हैं। यह वर्ग प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के पक्ष में हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि कर्नाटक में बीजेपी शासन को लेकर उत्साहित हो।

येदियुरप्पा पर नहीं रहा भरोसा

हर खिलाड़ी की तरह हर राजनेता शिखर पर पहुंचता है और फिर नीचे गिरता है। येदियुरप्पा के मामले में ये होता दिख रहा है। ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना चरम पार कर लिया है, जबकि सिद्धारमैया स्पष्ट रूप से शिखर पर हैं। जेल में समय बिताने के साथ भ्रष्टाचार का दाग येदियुरप्पा पर स्थायी रूप से चिपक गया है। बीजेपी दावा कर रही है कि अदालत के फैसले से ये दाग साफ हो गया है, लेकिन राजनीति धारणा से चलती है। ऐसे में राजनीतिक नैरेटिव से पूर्व सीएम पर लगा दाग मिटाना आसान नहीं है.एक प्रशासक के रूप में भी सिद्धारमैया का रिकॉर्ड येदियुरप्पा से बेहतर प्रतीत होता है।

BJP के लिए इस चुनाव में नए नेतृत्व की दुविधा रही। मुख्यमंत्री बोम्मई पार्टी का चेहरा जरूर रहे और पार्टी ने यह संकेत भी दिया कि अगर बीजेपी सत्ता में वापस आती है तो वही मुख्यमंत्री रहेंगे, लेकिन इसके पीछे बड़ा फैक्टर उनका लिंगायत समुदाय से आना है।

पार्टी के लिए कड़वी सचाई यह है कि अभी भी 80 साल के बीएस येदियुरप्पा उसके सबसे बड़े नेता बने हैं. पार्टी ने चुनाव प्रचार की शुरुआत में नए नेतृत्व की बदौलत चुनावी जंग लड़ने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आती गई, येदियुरप्पा पर पार्टी की निर्भरता बढ़ती गई। कहा तो यह भी गया कि बाद में टिकट वितरण तक में येदियुरप्पा की ही चली। इसी कारण बीजेपी की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच विभाजन भी दिखा और इसे लेकर सार्वजनिक बयानबाजी भी हुई।

विकास कार्यक्रमों का नहीं हुआ गुण 

BJP ने अपने विकास कार्यक्रमों को आम लोगों तक नहीं पहुंचाया। उसकी चर्चा पूरे चुनाव में न के बराबर हुई। किसी भी बड़े नेता की रैली में कर्नाटक सरकार की उपलब्धियों की चर्चा नहीं की गई। छोटे नेताओं ने सभाओं में अपनी सुविधा से जरूर अपने विकास कार्यक्रम को बताया। जबकि, बीजेपी को प्राथमिकता के आधार पर यही काम करना चाहिए था।

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