संपादकीय – राजनीति में विकल्पहीन नहीं है दुनिया…

 

अमित कुमार मंडल
राजनिति विज्ञान विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली


लगभग सभी सरकारी मशीनों का प्रयोग कर येन केन प्रकाड़ेन उत्तर प्रदेश समेत चार अन्य छोटे राज्यों में बीजेपी की सरकार बनने और उसके ठीक दूसरे दिन मोदी का गुजरात दौरा साथ ही उतरोत्तर कई अन्य घटनाएं मशलन हार्दिक पटेल का बीजेपी में शामिल होना , महाराष्ट्र की मविअ सरकार को तोड़कर कठपुतली सरकार बनवाना , झारखंड की सोरेन सरकार को तोड़ने का प्रयास और कांग्रेस समेत कई अन्य विपक्षी दलों के बड़े नेताओं पर ईडी सीबीआई आदि के छापे और हाल ही में सम्पन्न हुए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में विजय ने भाजपा और मोदी नेतृत्व को अजेय घोषित कर दिया है।

इसी अहंकार में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लोकतंत्र की जननी कही जाने वाली बिहार की धरती पर जाकर यहां तक कह आए की सारी क्षेत्रीय पार्टियां ही खत्म हो जाएंगी हालाकि उसी बिहार ने अगस्त क्रांति के दिन सामने आकर इस लोकतंत्र विरोधी भाजपाई संघी मानसिकता और तोड़ फोड़कर सरकार बनाने वाली मिशन कमल अभियान का मुंहतोड़ जबाव दे दिया है।

लेकिन उक्त घटनाओं के आधार पर गोदी मीडिया ने मोदी को चौबीस का एकतरफा हीरो घोषित कर दिया है और विपक्ष में बैठी बहुसंख्यक जनता को विकल्पहीन और असहाय घोषित करने का निरर्थक प्रयास जारी रखें हुए है ।

आज हम इस लेख में इसी विकल्पहीनता के संकट को बिहार की राजनीति से जोड़ते हुए इससे उबरने के प्रयासों पर चर्चा करेंगें और इस बात की भी तसदीक करने का प्रयास करेंगे कि क्या सही में भाजपा और मीडिया जिस विकल्प विहीन राजनीति की कल्पना करते हैं वो सफल हो पाएगा ? या फिर समय और परिस्थितियां नए विकल्प को जन्म दे पाने में सक्षम हो पाएंगी।

जब देश में कमरतोड़ महंगाई, बेरोजगारी , चारों तरफ भ्रष्टाचार और लूट-दमन की मार हो लगभग सारी इंडिपेंडेट संस्थाएं पंगु बनाकर दुनियां को यह संदेश देने की कोशिश की जा रही हो कि हम ही सब कुछ हैं, हमारा कोई तोड़ ही नहीं है । जब मिडिया और भाजपा के मिलीभगत से समाज के एक बड़े वर्ग में भी इस बात को जबरिया बिठाया जा रहा हो की मोदी ही सबकुछ है उसके आगे दुनियां ही नहीं है, ऐसे में मुझे देश के वरिष्ठ समाजवादी नेता किशन पटनायक की किताब का शीर्षक “विकल्पहीन नहीं है दुनियां” याद आ रही है , जानकारी के लिए बता दूं कि इस लेख में प्रयुक्त शीर्षक का पाटनायक जी की पुस्तक से कुछ खास लेना देना नहीं है साथ ही लेख में बार बार प्रयुक्त दुनियां शब्द का अर्थ भारत के सन्दर्भ से जोड़कर ही देखे जाने की जरूरत है।

अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि क्या चौबीस के लिए सही में मोदी का विकल्प कोई नहीं है या नहीं हो सकता है, तो दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है , दुनियां कभी भी विकल्पहीन नहीं रही है। मोदी से भी बड़े बहुमत से जीत कर आने वाली इन्दिरा सरकार के बारे में 1974 में किसी ने नहीं सोचा था कि पटना के कदम कुआं से एक बूढ़ा और दुर्बल व्यक्ति उठेगा और दिल्ली में सरकार गिर जाएगी , 1984 में अब तक के सबसे अधिक सीटों से जीतकर आए राजीव गांधी सरकार के लिए कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था , कि उसी दल से निकलकर बिखरे पड़े जनता परिवार को जोड़कर बीपी सिंह ऐसी पूर्ण प्रचंड बहुमत से चुनकर आई राजीव सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकेंगे। इस संदर्भ को और बड़ा करने के लिए आप राज्याधारित तत्कालीन या बाद में बने कईयों विकल्पो को भी उदाहरण में जोड़ सकते हैं ।

इसलिए जब तक चुनाव परिणाम न आ जाए कभी भी कुछ भी होने की संभावना बनी रहती है और बनी रहनी चाहिए। अब आते हैं चौबीस के विकल्प पर तो हां चौबीस का भी विकल्प है और उसका रास्ता बिहार लगभग-लगभग दिखा दिया है, वह रास्ता है महागठबंधन का इसी महागठबंधन ने 14 के बीजेपी लहर को 15 में ठंडा कर दिया था लेकिन तत्कालीन सत्ता समीकरणों ने बीजेपी को और 5 वर्ष दे दिया , ये अलग बात है, लेकिन देर से ही सही बिहार ही 24 के चुनाव में विपक्षी खेमे को नेतृत्व दे सकता है , अगर चौबीस का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाता है तो लड़ाई मंडलवादी असली पिछड़ा बनाम कमंडलवादी नकली पिछड़ा हो जायेगा और ऐसे में असली पिछड़ा नकली पिछड़े पर बहुत भारी पड़ेगा ।

हांलाकि अभी बहुत कुछ कहना जल्दबाजी होगा लेकिन अगर ऐसा होता है तो जरूर 2024 लोस चुनाव का मजबूत और कारगर विकल्प नीतीश कुमार के रूप में देखने को मिल सकता है।

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